मित्र-मंडली

Monday 6 February 2012

अब हम हिम्मत ऐ वतन को भुजाओं में बाँध के निकले हैं.


अब काव बोली, लिखत हई पढ़ी ल्या.
अब हम हिम्मत ऐ वतन को भुजाओं में बाँध के निकले हैं.
करलेंगे क्या ये धर्मों के ठेकेदार हम तो भारत माँ की गोद से मानवता का चोला पहन के निकले हैं.
इन्हें डिगा क्या देंगे ये बर्फीली लहर, जो कदम जयेष्ठ की दुपहरी में जल के निकले हैं.
इन हड्डियों के चूर-चूर में भी है सपूतों को तिलक लगाने की ताकत,
क्योंकि हम तो दधीच की हड्डियों से बन के निकले हैं.

चलेगी न अब रावन और कौरवों की कोई चाल

क्योंकि सुर्यवंश में फिर हम राम और अर्जुन बन के निकले हैं.

अब हम हिम्मते वतन को भुजाओं में बाँध के निकले हैं. 



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