मित्र-मंडली

Saturday 12 October 2013

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय- 6 (श्लोक- 45, 46 & 47)


प्रयत्न पूर्वक अभ्यास करने वाला योगी तो पिछले अनेक जन्मों के संस्कारबल से
इसी जन्म में संसिद्ध होकर सम्पूर्ण पापों से रहित हो फिर तत्काल ही परमगति को
प्राप्त हो जाता है।। 45 ।।

योगी तपस्वियोंसे श्रेष्ठ है, शास्त्र ज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म
करनेवालों से भी योगी श्रेष्ठ है; इससे हे अर्जुन! तू योगी हो।। 46 ।।

संपूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमें लगे हुए अंतरात्मा से मुझको
निरंतर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है।। 47 ।।

(संसिद्ध- Established
 परमगति- परमात्मा की गति)

इस गीता जी के कथन का पालन कर पता तो शायद सक्षम होता 'संसिद्ध' और 'परमगति' के अर्थ को बतलाने में।

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